एक फूल की चाह
सियारामशरणगुप्त
उद्वेलित कर अश्रु राशियाँ,
हृदय चिताएँ धधकाकर,
महा महामारी प्रचंड हो
फैल रही थी इधर उधर।
क्षीण कंठ मृतवत्साओं का
करुण रुदन दुर्दांत नितांत,
भरे हुए था निज कृश रव में
हाहाकार अपार अशांत।
एकजबरदस्तमहामारीफैलीहुईहै,जोइसकविताकीपृष्ठभूमिबनातीहै।जबमहामारीफैलतीहैतोकईलोगउसकीचपेटमेंआजातेहैं।जोजिंदाबचेरहतेहैंउनपरभीमौतकेमुँहमेंसमाजानेकाखतरालगातारबनारहताहै।
लगभग हर घर में मातम छाया रहता है।चारों ओर से किसी न किसी के रोने की आवाज आती है।जबकोईमाँअपनीसंतानकेशोकमेंबहुतअधिकरोलेतीहैतोएकसमयआताहैजबउसकागलाकमजोरपड़जाताहैऔररोनेकीआवाजबहुतक्षीणहोजातीहै।ऐसे में एक अजीब सी खामोशी छा जाती है।लेकिनउसखामोशीमेंभीऐसालगताहैजैसेहाहाकारमचाहुआहो।
बहुत रोकता था सुखिया को,
“न जा खेलने को बाहर”,
नहीं खेलना रुकता उसका
नहीं ठहरती वह पल भर।
मेरा हृदय काँप उठता था,
बाहर गई निहार उसे,
यही मनाता था कि बचा लूँ
किसी भाँति इस बार उसे।
इसकविताकेमुख्यपात्रहैंएकआदमीऔरउसकीबेटीसुखिया।सुखियाकिसीभीछोटीबच्चीकीतरहहमेशाखेलनेकूदनेमेंव्यस्तरहतीहै।अपनेपिताकेरोकनेकेबावजूदवहबाहरखेलनेचलीजातीहै।उसकेपिताकोडरहैकिकहींसुखियाउसमहामारीकीचपेटमेंनाआजाए।इसलिए वह उसे हमेशा बाहर जाने से मना करता है।वहकिसीभीकीमतपरअपनीबेटीकोउसमहामारीसेबचालेनाचाहताहै।जबभीकोईआपदाआतीहैतोहरमाँ——बापअपनेबच्चेकोसुरक्षितरखनाचाहतेहैं।
भीतर जो डर रहा छिपाए,
हाय!वही बाहर आया।
एक दिवस सुखिया के तनु को
ताप तप्त मैंने पाया।
ज्वर में विह्वल हो बोली वह,
क्या जानूँ किस डर से डर,
मुझको देवी के प्रसाद का
एक फूल ही दो लाकर।
लेकिन एक दिन वही होता है जिसका डर था।सुखिया भी उस महामारी का शिकार हो जाती है।उसका बदन बुखार से तपने लगता है।जबवहअपनेपिताकोचिंतितदेखतीहैतोकहतीहैकिवेकिसीबातकाडरनरखें।सुखियाकाकहनाहैकियदिदेवीमाँकेमंदिरसेप्रसादकाएकफूलमिलजाएतोवहठीकहोजाएगी।
क्रमश: कंठ क्षीण हो आया,
शिथिल हुए अवयव सारे,
बैठा था नव नव उपाय की
चिंता में मैं मनमारे।
जान सका न प्रभात सजग से
हुई अलस कब दोपहरी,
स्वर्ण घनों में कब रवि डूबा,
कब आई संध्या गहरी।
धीरे धीरे सुखिया की तबीयत बिगड़ने लगती है।उसके अंग अंग शिथिल पड़ने लगते हैं।देहमेंइतनीताकतनहींबचतीहैकिवहठीकसेबोलभीपाए।सुखियाकापिताहरउसउपायकेबारेमेंसोचताहैजिससेसुखियाकारोगदूरहोजाए।सुखियाकीदेखभालमेंकबसुबहहोतीहै,कबदोपहरऔरकबशामकेबादरातआतीहैसुखियाकेपिताकोपताहीनहींचलताहै।